दुखों का पहाड़ मुझपर टूट पड़ा,
और मैं सुनसान सड़क पर निकल पड़ा,
मंज़िल बिना ही चलने लगा,
अंत की ओर बढ़ने लगा|
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मेघ बरस रहे थे, समाँ खुशहाल था, दुख में डूबे मन को इसका कहाँ ख्याल था!
कड़के की सर्दी में भीगता रहा, दिशाहीन आगे बढ़ता रहा| | |
बादल तो बाहर बरस रहे थे, असली तूफान तो मन में उमड़ रहा था,
इस गम की बारिश में भीगता रहा,
दिशाहीन आगे बढ़ता रहा|
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ठंडी तो बाहर पड़ रही थी, पर सर्द तो भीतर का ख़ालीपन था,
उसी ख़ालीपन में ठिठुरता रहा,
दिशाहीन आगे बढ़ता रहा|
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- अमूल गर्ग |